सागर।भाषा। मध्यप्रदेश का पहला केन्द्रीय विश्वविद्यालय अपनी पहली कार्यकारिणी व अकादमिक परिषद के गठन के साथ ही विवादों में घिर गया है। बताया जा रहा है कि कुलपति कार्यालय को परिषदों के गठन के सिलसिले में मानव संसाधन विभाग से काफी पहले ही पत्र मिल चुका था, लेकिन उसने परिषदों के गठन की घोषणा मंत्रालय द्वारा दोबारा भेजे गए पत्र के मिलने के बाद ही की है। इससे परिषदों के गठन में एक माह से ज्यादा की देरी हो गई।
विवाद की शुरुआत केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर द्वारा जारी उस अधिसूचना के साथ हुई जिसके द्वारा उसने अपनी पहली कार्यकारिणी व अकादमिक परिषदों के गठन की औपचारिक घोषणा की है।
16 जुलाई को डा. हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुल सचिव के हस्ताक्षर से जारी अधिसूचना में बताया गया है कि परिषदों के गठन की घोषणा भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के अवर सचिव से प्राप्त 19 मई के पत्र के अनुबंध के तहत विश्वविद्यालय की पहली कार्यकारिणी परिषद व अकादमिक परिषद का गठन किया जा रहा है जो 19 मई 2009 से प्रभाव से मानी जाएगी। अधिसूचना के जारी होते ही विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका पर सवालिया निशान लगाए जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। विश्वविद्यालय की नवगठित कार्यकारिणी के सदस्यों के बीच भी यह जानने के लिए सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि अगर विश्वविद्यालय को मंत्रालय से परिषदों के गठन के सिलसिले में पत्र काफी पहले भेजा जा चुका था तो उसने परिषदों के गठन की घोषणा उसी पत्र के दोबारा भेजे जाने के बाद ही क्यों की।
मानव संसाधन मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि 15 जनवरी 2009 को अध्यादेश के जरिए बनाए गए देश के 16 नए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीन विश्वविद्यालयों- डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर व हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय को अपग्रेड किया था।
सूत्रों ने बताया कि इन तीनों विश्वविद्यालयों की पहली कार्यकारिणी व अकादमिक परिषदों के गठन के सिलसिले में 19 मई 2009 का मंत्रालय के अवर सचिव का हस्ताक्षरित पत्र भेजा गया था। सागर विश्वविद्यालय को छोड़कर शेष दो विश्वविद्यालयों में परिषदों की गठन की प्रक्रिया न केवल पूरी हो चुकी है, बल्कि वहां परिषदों ने काम करना भी शुरू कर दिया है।
इस सिलसिले में सागर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी प्रो. अखिलेश्वर प्रसाद दुबे ने कुलपति प्रो. एनएस गजभिए के हवाले से बताया है कि दोनों ही पत्र विश्वविद्यालय को 15 जुलाई को प्राप्त हुए हैं। अधिसूचना में प्रूफ की गलती से ऐसा लग रहा है कि एक पत्र विश्वविद्यालय को पहले प्राप्त हुआ है।
लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन की दलील लोगों के गले उतरती नहीं लग रही है। इस मुद्दे पर विश्वविद्यालय की नवगठित कार्यकारी परिषद के सदस्य प्रो. बद्री प्रसाद ने भाषा को बताया कि अधिसूचना को देखकर आश्चर्य होता है विश्वविद्यालय की परिषदों के गठन की घोषणा के सिलसिले में एक ही मंत्रालय अपने दो अलग अलग अधिकारियों-अवर सचिव व निदेशक द्वारा एक ही पत्र को एक ही तारीख को क्यों भेजेगा।
प्रसाद का कहना है कि इस सारे मामले में कुलपति कार्यालय की भूमिका संदिग्ध लग रही है। उन्होंने कहा कि अगर मंत्रालय द्वारा भेजे जाने वाले पत्र के गायब होने की बात सही है तो कल को विश्वविद्यालय को किसी बड़ी ग्रांट या परियोजना के सिलसिले में प्रस्ताव मंगाए जाने वाले पत्र भी गायब हो सकते हैं तब विश्वविद्यालय को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा।
इस सारे विवाद के चलते सागर विश्वविद्यालय प्रशासन बचाव की भूमिका में नजर आने लगा है। विश्वविद्यालय परिसर में भी दबी जुबान से इस मामले पर चर्चा गर्म है कि अगर मंत्रालय स्तर के पत्रों को दबाने में भी प्रशासन के कारिंदों के दिल में डर नहीं रहा तो इस विश्वविद्यालय को भगवान ही बचा सकता है।
विवाद की शुरुआत केन्द्रीय विश्वविद्यालय सागर द्वारा जारी उस अधिसूचना के साथ हुई जिसके द्वारा उसने अपनी पहली कार्यकारिणी व अकादमिक परिषदों के गठन की औपचारिक घोषणा की है।
16 जुलाई को डा. हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुल सचिव के हस्ताक्षर से जारी अधिसूचना में बताया गया है कि परिषदों के गठन की घोषणा भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग के अवर सचिव से प्राप्त 19 मई के पत्र के अनुबंध के तहत विश्वविद्यालय की पहली कार्यकारिणी परिषद व अकादमिक परिषद का गठन किया जा रहा है जो 19 मई 2009 से प्रभाव से मानी जाएगी। अधिसूचना के जारी होते ही विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका पर सवालिया निशान लगाए जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। विश्वविद्यालय की नवगठित कार्यकारिणी के सदस्यों के बीच भी यह जानने के लिए सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि अगर विश्वविद्यालय को मंत्रालय से परिषदों के गठन के सिलसिले में पत्र काफी पहले भेजा जा चुका था तो उसने परिषदों के गठन की घोषणा उसी पत्र के दोबारा भेजे जाने के बाद ही क्यों की।
मानव संसाधन मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि 15 जनवरी 2009 को अध्यादेश के जरिए बनाए गए देश के 16 नए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में तीन विश्वविद्यालयों- डा. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, गुरु घासीदास विश्वविद्यालय बिलासपुर व हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय को अपग्रेड किया था।
सूत्रों ने बताया कि इन तीनों विश्वविद्यालयों की पहली कार्यकारिणी व अकादमिक परिषदों के गठन के सिलसिले में 19 मई 2009 का मंत्रालय के अवर सचिव का हस्ताक्षरित पत्र भेजा गया था। सागर विश्वविद्यालय को छोड़कर शेष दो विश्वविद्यालयों में परिषदों की गठन की प्रक्रिया न केवल पूरी हो चुकी है, बल्कि वहां परिषदों ने काम करना भी शुरू कर दिया है।
इस सिलसिले में सागर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी प्रो. अखिलेश्वर प्रसाद दुबे ने कुलपति प्रो. एनएस गजभिए के हवाले से बताया है कि दोनों ही पत्र विश्वविद्यालय को 15 जुलाई को प्राप्त हुए हैं। अधिसूचना में प्रूफ की गलती से ऐसा लग रहा है कि एक पत्र विश्वविद्यालय को पहले प्राप्त हुआ है।
लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन की दलील लोगों के गले उतरती नहीं लग रही है। इस मुद्दे पर विश्वविद्यालय की नवगठित कार्यकारी परिषद के सदस्य प्रो. बद्री प्रसाद ने भाषा को बताया कि अधिसूचना को देखकर आश्चर्य होता है विश्वविद्यालय की परिषदों के गठन की घोषणा के सिलसिले में एक ही मंत्रालय अपने दो अलग अलग अधिकारियों-अवर सचिव व निदेशक द्वारा एक ही पत्र को एक ही तारीख को क्यों भेजेगा।
प्रसाद का कहना है कि इस सारे मामले में कुलपति कार्यालय की भूमिका संदिग्ध लग रही है। उन्होंने कहा कि अगर मंत्रालय द्वारा भेजे जाने वाले पत्र के गायब होने की बात सही है तो कल को विश्वविद्यालय को किसी बड़ी ग्रांट या परियोजना के सिलसिले में प्रस्ताव मंगाए जाने वाले पत्र भी गायब हो सकते हैं तब विश्वविद्यालय को बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा।
इस सारे विवाद के चलते सागर विश्वविद्यालय प्रशासन बचाव की भूमिका में नजर आने लगा है। विश्वविद्यालय परिसर में भी दबी जुबान से इस मामले पर चर्चा गर्म है कि अगर मंत्रालय स्तर के पत्रों को दबाने में भी प्रशासन के कारिंदों के दिल में डर नहीं रहा तो इस विश्वविद्यालय को भगवान ही बचा सकता है।
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