सूर्य से चौथे क्रम का ग्रह मंगल सौरमंडल के उन ग्रहों में से एक है जिसे लेकर मानवजाति में सदियों से उत्कंठा रही है। पिछली सदी के उत्तरार्ध तक भी बहुत से लोगों का यह प्रबल विश्वास था कि मंगल पर किसी तरह की आधुनिक सभ्यता का वास है या वहां पृथ्वी की तरह महासागरों का अस्तित्व है। शायद ऐसी ही जिज्ञासाओं की वजह से सौरमंडल के तमाम ग्रहों में सबसे ज्यादा पड़ताल इसी ग्रह की हुई जो आज भी जारी है क्योंकि इस ग्रह के बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।
आज भी मंगल की सतह पर स्प्रिट और अपॉर्च्युनिटी नामक दो रोबोटिक यान इस ग्रह की पड़ताल में संलग्न हैं, जबकि फीनिक्स, जो कि इसी साल 25 मई को मंगल की सतह पर उतरा था, और जिसने वहां पानी (वाटर-आइस) होने की पुष्टि की थी, का हाल ही में अंत हो गया, यानी पृथ्वी से उसका संपर्क खत्म हो गया। इसी तरह यूरोपीय स्पेस एजेंसी का ‘मार्स एक्सप्रेस’ नामक यान मंगल की परिक्रमा करते हुए इसके वायुमंडल और सतह की पड़ताल कर रहा है।
इसके अलावा नासा का ‘मार्स रिकॉनेसेंस आर्बिटर’ अपने शक्तिशाली कैमरों की मदद से मंगल की सतह के नीचे तक की खोजबीन कर रहा है। इसी क्रम में नासा अगले साल ‘मार्स साइंस लेबोरेट्री’ नामक यान को लांच करने जा रहा है जो आने वाले वर्षों में मंगल पर मानव अभियान की राह को प्रशस्त करेगा।
मंगल सौरमंडल के उन ग्रहों में एक है जिसे बिना टेलिस्कोप की मदद से पृथ्वी से देखा जा सकता है। इसे पहचानना भी आसान है क्योंकि लाल रंग के कारण यह अलग-से दिखायी देता है। इसके लाल रंग के कारण इसे रोम के युद्ध देवता मार्ज का नाम दिया गया। शुरूआती टेलिस्कोप निरीक्षण में जब मंगल को देखा गया तो इसकी सतह पर कुछ परिवर्तन तथा ऐसी रेखीय संरचनाएं देखी गयीं जिन्होंने वर्षों तक भ्रम की स्थिति बनाये रखी। सूखी नहरों जैसी दिखने वाली संरचनाओं के बारे में माना गया कि किसी बुद्धिमान सभ्यता ने उनका निर्माण किया है।
दरअसल सतह पर रंग-परिवर्तन की वजह मंगल के ध्रुवीय क्षेत्र में ऋतुचक्र के कारण बनने-मिटने वाले हिमशिखर थे और रेखीय संरचनाएं मंगल की सतह पर कभी जल की मौजूदगी से बनी थीं। 1898 में एचजी वेल्स ने मंगल के बारे में जनमानस में बनी कल्पनाओं पर ‘वार ऑफ वल्र्ड्स’ नामक उपन्यास लिखा था, जिसमें मंगल के प्राणी पृथ्वी पर हमला कर देते हैं। यह उपन्यास इतना प्रसिद्ध हुआ कि इस पर अनेक फिल्में, सीरियल्स, रेडियो नाटक कॉमिक्स आदि बनाये गये।
बाद में जब उन्नत टेलिस्कोप बनने शुरू हुए तो मंगल के दो चंद्रमाओं- फोबोस और देमोस की खोज हुई। टेलिस्कोप से ही मंगल के ध्रुवों पर हिमशिखरों और वहां मौजूद सौरमंडल के सबसे बड़े पर्वत आ॓लंपस मोन्स (27 किलोमीटर ऊंचा)और सबसे बड़ी दर्रा प्रणाली (कैनियन)का पता चला। इन खोजों ने मंगल में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी और बढ़ा दी। 1965 में पहली बार नासा का अंतरिक्ष यान मैरिनर 4 और 1969 में मैरिनर 6 और 7 मंगल के पास से गुजरे और इसके सैकड़ों चित्र पृथ्वी पर भेजे।
1971 में मैरिनर 9 मंगल की परिक्रमा करने वाला पहला अंतरिक्षयान बना। इसने पूरे ग्रह के चित्र उतारे जिनकी मदद से वैज्ञानिकों ने इस ग्रह का नक्शा बनाया। 1976 में वाइकिंग 1 और वाइकिंग 2 मंगल की सतह, वायुमंडल और जीवन की खोज के लिए यहां पहुंचे। तब से मंगल की पड़ताल का सिलसिला जारी है। मंगल के अभियानों से यह बात साबित हो गयी कि मंगल एक वीरान, निर्जन और ठंडा ग्रह है जहां जीवन की संभावनाएं क्षीण हैं लेकिन यहां कभी जल का अस्तित्व था, इस बात की पुष्टि हो चुकी है।
पृथ्वी से मंगल की न्यूनतम दूरी 5.6 करोड़ किलोमीटर है। इसका व्यास पृथ्वी के पांचवें हिस्से(6,790 किमी)के बराबर है लेकिन इसकी जमीन पृथ्वी के ही बराबर है क्योंकि वहां पृथ्वी की तरह महासागर नहीं हैं। मंगल पर पृथ्वी की तरह मौसम प्रणाली है और उसकी अवधि पृथ्वी से दुगनी है। मंगल का दिन भी पृथ्वी जितना लंबा- 24 घंटे 37 मिनट का है लेकिन साल 687 दिनों का है। मंगल पर रात का तापमान शून्य से 101 डिग्री सेल्सियस तक नीचे चला जाता है। चूंकि मंगल के वायुमंडल में 95 प्रतिशत कार्बन डाय ऑक्साइड है, इसलिए यहां सांस नहीं ली जा सकती। मंगल पर जो हवा है वह पृथ्वी की तुलना में 95 प्रतिशत पतली है और सूर्य घातक पराबैंगनी किरणों से जीवन की रक्षा करने में अक्षम है।
जब कभी पृथ्वी से बाहर मानव बस्ती बसाने की बात होती है तो चंद्रमा का नाम सबसे पहले जेहन में आता है क्योंकि यही हमारे सबसे नजदीक है लेकिन सच्चाई यह है सौरमंडल में जितने भी ग्रह-उपग्रह हैं, उनमें सिर्फ मंगल ही ऐसा है जिसे मानवजाति की भावी बस्ती तौर पर देखा जा रहा है। स्टीफन हॉकिंग समेत दुनिया के नामी वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल को बदला जा सकता है।
मंगल की सतह की स्थितियां, इसका पर्यावरण और पानी (वाटर-आइस) की मौजूदगी इसे मानव जीवन के लिए उपयुक्त बनाते हैं हालांकि इसे मानवानुकूल बनाना बेहद श्रमसाध्य और व्यापक संसाधनों की मांग वाला होगा। भविष्य में ऐसा करना मानवजाति के लिए जरूरी भी होगा क्योंकि तेजी से खत्म होते संसाधन, बिगड़ता पर्यावरण, क्षुद्रग्रहों, धूमकेतुओं और उल्पापिंडों के सतत खतरे से बचने के लिए पृथ्वी से इतर अंतरिक्ष में घर बनाना मानवजाति के अपरिहार्य और श्रेयस्कर होगा।
आज भी मंगल की सतह पर स्प्रिट और अपॉर्च्युनिटी नामक दो रोबोटिक यान इस ग्रह की पड़ताल में संलग्न हैं, जबकि फीनिक्स, जो कि इसी साल 25 मई को मंगल की सतह पर उतरा था, और जिसने वहां पानी (वाटर-आइस) होने की पुष्टि की थी, का हाल ही में अंत हो गया, यानी पृथ्वी से उसका संपर्क खत्म हो गया। इसी तरह यूरोपीय स्पेस एजेंसी का ‘मार्स एक्सप्रेस’ नामक यान मंगल की परिक्रमा करते हुए इसके वायुमंडल और सतह की पड़ताल कर रहा है।
इसके अलावा नासा का ‘मार्स रिकॉनेसेंस आर्बिटर’ अपने शक्तिशाली कैमरों की मदद से मंगल की सतह के नीचे तक की खोजबीन कर रहा है। इसी क्रम में नासा अगले साल ‘मार्स साइंस लेबोरेट्री’ नामक यान को लांच करने जा रहा है जो आने वाले वर्षों में मंगल पर मानव अभियान की राह को प्रशस्त करेगा।
मंगल सौरमंडल के उन ग्रहों में एक है जिसे बिना टेलिस्कोप की मदद से पृथ्वी से देखा जा सकता है। इसे पहचानना भी आसान है क्योंकि लाल रंग के कारण यह अलग-से दिखायी देता है। इसके लाल रंग के कारण इसे रोम के युद्ध देवता मार्ज का नाम दिया गया। शुरूआती टेलिस्कोप निरीक्षण में जब मंगल को देखा गया तो इसकी सतह पर कुछ परिवर्तन तथा ऐसी रेखीय संरचनाएं देखी गयीं जिन्होंने वर्षों तक भ्रम की स्थिति बनाये रखी। सूखी नहरों जैसी दिखने वाली संरचनाओं के बारे में माना गया कि किसी बुद्धिमान सभ्यता ने उनका निर्माण किया है।
दरअसल सतह पर रंग-परिवर्तन की वजह मंगल के ध्रुवीय क्षेत्र में ऋतुचक्र के कारण बनने-मिटने वाले हिमशिखर थे और रेखीय संरचनाएं मंगल की सतह पर कभी जल की मौजूदगी से बनी थीं। 1898 में एचजी वेल्स ने मंगल के बारे में जनमानस में बनी कल्पनाओं पर ‘वार ऑफ वल्र्ड्स’ नामक उपन्यास लिखा था, जिसमें मंगल के प्राणी पृथ्वी पर हमला कर देते हैं। यह उपन्यास इतना प्रसिद्ध हुआ कि इस पर अनेक फिल्में, सीरियल्स, रेडियो नाटक कॉमिक्स आदि बनाये गये।
बाद में जब उन्नत टेलिस्कोप बनने शुरू हुए तो मंगल के दो चंद्रमाओं- फोबोस और देमोस की खोज हुई। टेलिस्कोप से ही मंगल के ध्रुवों पर हिमशिखरों और वहां मौजूद सौरमंडल के सबसे बड़े पर्वत आ॓लंपस मोन्स (27 किलोमीटर ऊंचा)और सबसे बड़ी दर्रा प्रणाली (कैनियन)का पता चला। इन खोजों ने मंगल में वैज्ञानिकों की दिलचस्पी और बढ़ा दी। 1965 में पहली बार नासा का अंतरिक्ष यान मैरिनर 4 और 1969 में मैरिनर 6 और 7 मंगल के पास से गुजरे और इसके सैकड़ों चित्र पृथ्वी पर भेजे।
1971 में मैरिनर 9 मंगल की परिक्रमा करने वाला पहला अंतरिक्षयान बना। इसने पूरे ग्रह के चित्र उतारे जिनकी मदद से वैज्ञानिकों ने इस ग्रह का नक्शा बनाया। 1976 में वाइकिंग 1 और वाइकिंग 2 मंगल की सतह, वायुमंडल और जीवन की खोज के लिए यहां पहुंचे। तब से मंगल की पड़ताल का सिलसिला जारी है। मंगल के अभियानों से यह बात साबित हो गयी कि मंगल एक वीरान, निर्जन और ठंडा ग्रह है जहां जीवन की संभावनाएं क्षीण हैं लेकिन यहां कभी जल का अस्तित्व था, इस बात की पुष्टि हो चुकी है।
पृथ्वी से मंगल की न्यूनतम दूरी 5.6 करोड़ किलोमीटर है। इसका व्यास पृथ्वी के पांचवें हिस्से(6,790 किमी)के बराबर है लेकिन इसकी जमीन पृथ्वी के ही बराबर है क्योंकि वहां पृथ्वी की तरह महासागर नहीं हैं। मंगल पर पृथ्वी की तरह मौसम प्रणाली है और उसकी अवधि पृथ्वी से दुगनी है। मंगल का दिन भी पृथ्वी जितना लंबा- 24 घंटे 37 मिनट का है लेकिन साल 687 दिनों का है। मंगल पर रात का तापमान शून्य से 101 डिग्री सेल्सियस तक नीचे चला जाता है। चूंकि मंगल के वायुमंडल में 95 प्रतिशत कार्बन डाय ऑक्साइड है, इसलिए यहां सांस नहीं ली जा सकती। मंगल पर जो हवा है वह पृथ्वी की तुलना में 95 प्रतिशत पतली है और सूर्य घातक पराबैंगनी किरणों से जीवन की रक्षा करने में अक्षम है।
जब कभी पृथ्वी से बाहर मानव बस्ती बसाने की बात होती है तो चंद्रमा का नाम सबसे पहले जेहन में आता है क्योंकि यही हमारे सबसे नजदीक है लेकिन सच्चाई यह है सौरमंडल में जितने भी ग्रह-उपग्रह हैं, उनमें सिर्फ मंगल ही ऐसा है जिसे मानवजाति की भावी बस्ती तौर पर देखा जा रहा है। स्टीफन हॉकिंग समेत दुनिया के नामी वैज्ञानिकों का मानना है कि मंगल को बदला जा सकता है।
मंगल की सतह की स्थितियां, इसका पर्यावरण और पानी (वाटर-आइस) की मौजूदगी इसे मानव जीवन के लिए उपयुक्त बनाते हैं हालांकि इसे मानवानुकूल बनाना बेहद श्रमसाध्य और व्यापक संसाधनों की मांग वाला होगा। भविष्य में ऐसा करना मानवजाति के लिए जरूरी भी होगा क्योंकि तेजी से खत्म होते संसाधन, बिगड़ता पर्यावरण, क्षुद्रग्रहों, धूमकेतुओं और उल्पापिंडों के सतत खतरे से बचने के लिए पृथ्वी से इतर अंतरिक्ष में घर बनाना मानवजाति के अपरिहार्य और श्रेयस्कर होगा।
0 comments:
Post a Comment